रात का दर्ज़ी।।

सारी रातें पड़ी हैं अमावस सी मेरी
वो दर्ज़ी जो इनमे
चाँद तारे टांका करता था
कही खो गया है शायद।।

काले धागे समाप्त हो गए
या अब उसकी झोली में
कोई रौशन चाँद नही
यही सोचता रहता हूं
कुछ तो हो गया है शायद।।

क्यों गुम हो गया
वो अंधेरा छोड़ कर
क्या वो तारों की झालर
उसकी दुकान में बची ही नही
या फिर हाथ मे कोई और
आसमाँ आ गया है शायद।।

नही अच्छी लगती ये
दियों की रौनक धरती पे
जगमग आसमाँ की अरदास
आज एक बार फिर से
दिल करने लगा है शायद।।

….सुनील

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